हिन्दी की उत्कृष्ट आत्मकथाओं में स्वीकृत ‘पिंजरे की मैना’ सिर्फ़ एक स्त्री की नहीं, पूरे एक युग की कथा है जो 1857 के आसपास के समय से शुरू होकर आज़ाद भारत तक आती है और सामाजिक-राजनीतिक इतिहास के पतले गलियारों से गुज़रते हुए एक परम्परानिष्ठ लेकिन अत्यन्त प्रतिभावान स्त्री की पीड़ा का लोमहर्षक चित्र सामने लाती है।
औपन्यासिक वितान में रची गई इस आत्मकथा में संयुक्त परिवार, उसमें स्त्री की स्थिति और दाम्पत्य जीवन के जैसे चित्र अंकित किए गए हैं, उनका समाजशास्त्रीय महत्त्व है। एक रचनाशील और स्वातंत्र्यबोध से सम्पन्न शिक्षित स्त्री पारम्परिक- पारिवारिक रूढ़ियों, आर्थिक समस्याओं और पुरुष-कुंठाओं के बावजूद कैसे अपनी सृजनात्मकता को बचाए रहती है, और आनेवाली अपनी पीढ़ी के लिए किस तरह एक उदार और मानवीय वातावरण का निर्माण करती है, इस आत्मकथा में निर्मम तटस्थता के साथ चन्द्रकिरण जी ने उसका विस्तृत और दैनंदिन ब्योरा दिया है।
चन्द्रकिरण सौनरेक्सा सक्षम कथाकार रही हैं। अपने समय, समाज और सामाजिक-पारिवारिक जीवन की तमाम गुत्थियों को जानने-समझने वाली एक सजग मेधा जिन्हें स्त्रीत्व की मध्यवर्गीय सीमाओं से लगातार लोहा लेना पड़ा। लेकिन उन्होंने न अपनी लेखनी को रुकने दिया और न अपने भीतर की मनुष्यता को फीका पड़ने दिया, और न ही अपने किसी दायित्व से ही मुँह मोड़ा।
उनकी कहानी कला को लेकर कथाकार-उपन्यासकार विष्णु प्रभाकर का कहना था, ‘महादेवी को जो प्रसिद्धि कविता के क्षेत्र में प्राप्त हुई है, वही चन्द्रकिरण जी ने कहानी के क्षेत्र में पाई। मध्यवर्ग की नारी का जितना यथार्थ-चित्रण आपकी कहानियों में हुआ है, शायद ही किसी कथाकार की कृतियों में हुआ हो।’
इस आत्मकथा में भी उनका कथाकार अपनी पूरी क्षमता के साथ मौजूद है। अपने परदादा की पीढ़ी से लेकर आज तक की अपनी कहानी को उन्होंने सभी प्रसंगों और पात्रों के साथ एक विराट कलेवर में प्रस्तुत किया है।

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Language Hindi
Format Hard Back, Paper Back
Publication Year 2010
Edition Year 2022, Ed. 2nd
Pages 360p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22.5 X 14.5 X 2.5
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Chandrakiran Sonrexa

Author: Chandrakiran Sonrexa

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा

चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का जन्म 19 अक्टूबर, 1920 को पेशावर, पाकिस्तान के नौशोरा में हुआ। उनकी शिक्षा-दीक्षा मेरठ में हुई। स्वाध्याय से उन्होंने 1935 में प्रभाकर और 1936 में साहित्य रत्न की परीक्षाएँ पास कीं। घर में रहकर ही अंग्रेज़ी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती, गुरुमुखी आदि भाषाएँ भी सीखीं। छोटी उम्र से ही उन्होंने कविताएँ, गीत और कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं। साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, नीहारिका, सारिका, कहानी, चाँद, हंस आदि पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ लगातार छपती रहीं। उन्होंने लखनऊ आकाशवाणी में पटकथा लेखक-सह-सम्पादक के पद पर कार्य किया। वहाँ से सेवानिवृत्त होने के बाद पायनियर समाचार-पत्र के सह-प्रकाशन सुमन की सम्पादक रहीं।
उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं—चन्दन चाँदनी, वंचिता, कहीं से कहीं नहीं, और दीया जलता रहा (उपन्यास); आदमखोर, जवान मिट्टी, ए क्लास का कैदी, दूसरा बच्चा, सौदामिनी, वे भेड़िए, हिरनी, उधार का सुख, विशिष्ट कहानियाँ (कहानी-संग्रह); शीशे का महल, दमयंती, पशु-पक्षी सम्मेलन (बाल-साहित्य); पीढ़ियों के पुल (नुक्कड़-नाटक); पिंजरे की मैना (आत्मकथा)।
उन्हें ‘सेकसरिया पुरस्कार’, ‘सारस्वत सम्मान’, ‘सुभद्रा कुमारी चौहान स्वर्ण पदक’ तथा हिन्दी अकादमी, दिल्ली के ‘20वीं सदी की सर्वश्रेष्ठ महिला कथाकार सम्मान’ से सम्मानित किया गया।
18 मई, 2009 को उनका देहावसान हुआ।

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