प्रस्तुत पुस्तक में अपने अस्तित्व स्थापन के लिए सदियों से संघर्षरत नारी और उसकी चेतना के विविध रूपों का चित्रण है। समाज की एक इकाई के रूप में अपनी पहचान की निर्मिति के लिए नारी ने जिस अदम्य जिजीविषा एवं प्रबल इच्छा शक्ति का परिचय दिया, उसका यहाँ खुलकर विश्लेषण किया गया है। भारतीय समाज में परम्परागत नारी की छवि, उसका ऐतिहासिक स्वरूप तथा नारी चेतना को प्रतिबिम्बित करनेवाले हिन्दी साहित्य की सम्यक् मीमांसा की गई है। नारी ने धर्म, आस्था, परम्परा, मूल्य एवं व्यवस्था से यदि असन्तोष प्रकट किया है, तो इसके पीछे के निहित कारणों को प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से समझा जा सकता है। प्रस्तुत पुस्तक में नारी चेतना के संश्लिष्ट आयामों का विवेचन हुआ है, जो पूरी पुस्तक में बेबाक़ी से अभिव्यक्त हुआ है।
—प्रो. शैल पाण्डेय
यह पुस्तक उन सभी सुधी पाठकों के लिए एक नई सोच विकसित करने में सहायक हो सकती है, जो जीवन की बारीकियों को अपने जीवन की अनुभूतियों से समझना चाहते हैं। मेरा मानना है कि अनुभूति एवं तदनुभूति के बीच एक झीनी दीवार है, जिसे समझने के लिए लेखक या लेखिका को जीवन की बारीकियों की एवं मनोवैज्ञानिक समझ होना ज़रूरी है।
प्रस्तुत पुस्तक इसी दिशा में एक सार्थक प्रयास है।
—अजय प्रकाश
Language | Hindi |
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Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2007 |
Edition Year | 2022, Ed. 2nd |
Pages | 156p |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1.5 |