नई कहानी के पारम्परिक ढाँचे को लगभग तोड़कर उदय प्रकाश, संजीव और शिवमूर्ति जैसे कथाकारों ने जो नई ज़मीन बनाई, उसे नब्बे के दशक में जिन कथाकारों ने विस्तार और गहराई देने का काम किया, उनमें संजय सहाय भी एक रहे। 1994 में ‘हंस’ में प्रकाशित अपनी कहानी ‘शेषान्त’ के साथ उन्होंने हिन्दी कथा-साहित्य में जैसे एक नई लकीर खींच दी थी। बेशक, उन्होंने कहानियाँ कम लिखीं। लेकिन जब भी लिखीं, पाठकों को एक नया आस्वाद, एक नया अनुभव दिया। अब लगभग दो दशक बाद उनका यह नया कहानी-संग्रह ‘मुलाक़ात’ नए सिरे से याद दिलाता है कि ज़िन्दगी की तरह कहानी में भी कितनी परतें हो सकती हैं। यह दरअसल शिल्प का कमाल नहीं, संवेदना की पकड़ है जो कथाकार को यह देखने की क्षमता देती है कि एक मुठभेड़ के भीतर कितनी मुठभेड़ें चलती रहती हैं, कि जब हम दूसरे को मारने निकलते हैं तो पहले कितना ख़ुद को मारते हैं, कि जीवन कितना निरीह और फिर भी कितना मूल्यवान हो सकता है, कि एक पछतावा उम्र-भर किसी का इस तरह पीछा कर सकता है कि वह अपनी देह के खोल से निकलकर उस शख़्स को खोजना चाहे जिसके साथ बचपन में कभी उसने अन्याय किया था, कि उसे एहसास हो कि यह अन्याय व्यक्तिगत नहीं, बल्कि सामाजिक था और इस वजह से कहीं ज़्यादा मार्मिक और मारक हो गया था।
ये कहानियाँ आपको तनाव से भर सकती हैं, आपको स्तब्ध कर सकती हैं और आपको इस तनाव से मुक्ति भी दिला सकती हैं, इस स्तब्धता से उबार भी सकती हैं। क़िस्सागोई की तरलता और जीवन के स्पन्दन से भरी इन कहानियों को पढ़ना एक विलक्षण अनुभव है जो आपको कुछ और बना देता है।
—प्रियदर्शन
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2018 |
Edition Year | 2018, Ed. 1st |
Pages | 104p |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Rajkamal Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.2 X 1.3 |