हमारी दुनिया आरम्भ से आज तक, चाहे जितनी विकसित, शिक्षित और परस्पर एक-दूसरे के निकट आई हो, अनुवाद की संवादी भूमिका व्यापक, वैश्विक एवं अनिवार्य हुई है। अनुवाद का इतिहास उतना ही आदिम है, जितना हमारी सभ्यता का। अनुवाद उन कमज़ोर तथा पिछड़े मानव-समूहों एवं राष्ट्रों का तरफ़दार होता है, जो समाजेतिहासिक कारणों से विकास से वंचित रह गए; परन्तु जिन्हें सदैव वंचित रखा नहीं जा सकता। बहुभाषिक दुनिया में अनुवाद के ज़रिये कायम हुई आपसदारी सोद्देश्य और रचनात्मक होती है। इसमें आगे बढ़ने के पहले बहुत सारे आग्रहों और दुराग्रहों तथा निहित स्वार्थ को त्यागना पड़ता है। इस अर्थ में अनुवाद का सरोकार ‘सबकी सुने और सबकी ख़ैर करे’ वाला ज्ञानप्रसारी है। अनुवाद सृजन की मुक्ति-यात्रा है—एक ऐसी यात्रा, जो एक भाषा से आरम्भ होकर दूसरी, तीसरी, फिर चौथी, पाँचवी आदि भाषाओं में अनवरत चलती रहती है।
अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त पुस्तक में अनुवाद को समय के यथार्थ तथा ज़माने की अपेक्षा और आकांक्षा के अनुरूप विवेचित एवं विश्लेषित करने की कोशिश की गई है। जैसा कि पुस्तक के नाम से ध्वनित है, इसमें ‘अनुवाद में विसर्जन और सर्जन का सिद्धान्त’ नाम से एक अभिनव अनुवाद-सिद्धान्त की रचना का प्रयास किया गया है। इसे स्पष्ट तौर पर समझने के लिए और पहले के अनुवाद-सिद्धान्तों से इसके सर्वथा अलग एवं अभिनव होने के बाबत पुस्तक में प्रचलित अनुवाद-सिद्धान्तों का भी एक अध्याय दिया गया है।
Language | Hindi |
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Binding | Paper Back |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publication Year | 2025 |
Edition Year | 2025, Ed. 1st |
Pages | 168p |
Publisher | Lokbharti Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1 |