Acharya Shukla : Pratinidhi Nibandha-Hard Back

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आचार्य रामचन्‍द्र शुक्‍ल हिन्‍दी के अनन्‍य निबन्‍धकार हैं। साहित्यिक, शास्‍त्रीय और शैक्षिक दृष्टि से उनके निबन्‍धों का अध्‍ययन अनिवार्य है, पर उनके प्रतिनिधि निबन्‍धों का एक भी संकलन ऐसा नहीं है जो उनकी विधायिनी प्रतिभा का सम्‍यक् परिचय दे सके। इस परिप्रेक्ष्‍य में ‘आचार्य शुक्‍ल : प्रतिनिधि निबन्‍ध’ बेहद महत्‍त्‍वपूर्ण है, क्‍योंकि शुक्‍ल जी की प्राय: सभी उपलब्‍ध और अनुपलब्‍ध कृतियों का प्रतिनिधि‍त्‍व करती है यह पुस्‍तक।

पुस्‍तक में शुक्‍ल जी के प्रतिनिधि‍ निबन्‍धों को तीन भागों में बाँटा गया है—वैचारिक निबन्‍ध, सैद्धान्तिक निबन्‍ध और व्‍यावहारिक निबन्‍ध। संकलन के आधार हैं—‘बुद्ध चरित’, ‘विश्‍व प्रपंच’, ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’, ‘रस-मीमांसा’, ‘गोस्‍वामी तुलसीदास’, ‘हिन्‍दी निबन्‍ध माला’, ‘भारतेन्‍दु साहित्‍य’, ‘हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास’, ‘चिन्‍तामणि’ (भाग—दो), ‘सूरदास’ आदि। संकलन का प्रारम्भिक निबन्‍ध उनके ‘हिन्‍दी साहित्‍य का इतिहास’ से संगृहित है। यह लेख उनकी दृष्टि से निबन्‍ध का मानदंड प्रस्‍तुत करता है। इसे संग्रह की प्रस्‍तावना के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। काव्‍य-क्रम की दृष्टि से भी प्रारम्‍भ से लेकर उनके जीवन के अन्तिम समय तक लिखे गए निबन्‍धों का पुस्‍तक में समावेश किया गया है। भाषा, साहित्य शास्‍त्र तथा हिन्‍दी के भक्ति साहित्‍य से लेकर ‘कामायनी’ तक इन निबन्‍धों के विषय हैं। इसलिए उनकी व्‍यापक मान्‍यताओं और भेद में अभेद देखनेवाली तत्वग्राही दृष्टि का सम्‍यक् ये निबन्‍ध देते हैं। इस दृष्टि से इनकी परिधि बड़ी व्‍यापक है।

शुक्‍ल जी का सर्वोत्‍तम लेखन ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ का प्रकाशन है और आजन्‍म वे उससे सम्‍बद्ध भी रहे। इसलिए ‘सभा’ के वर्तनी सिद्धान्‍त का ही व्‍यवहार किया गया है, यथा—पंचम वर्ण के स्‍थान पर अनुस्‍वार का प्रयोग और दो से अधिक सामासिक शब्‍दों में ही समास चिन्‍ह का प्रयोग। शुक्‍ल जी रखा न लिखकर ‘रक्‍खा’ लिखते थे ताकि देवनागरी के उच्‍चारण की वैज्ञानिकता—जो लिखा जाए, वही पढ़ा जाए—सुरक्षित रह सके, उसका भी पालन किया गया है।

परिशिष्‍टों में आचार्य शुक्‍ल का जीवन-वृत्‍त और कृतियों के संकेत-सूत्र दे दिए गए हैं और उनके निबन्‍धों का संक्षिप्‍त मूल्‍यांकन हिन्‍दी निबन्‍ध-परम्‍परा के परिवेश में कर दिया गया है। शोधार्थियों, अध्‍येताओं आदि के लिए संग्रहणीय और महत्‍त्‍वपूर्ण कृति।

 

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Isbn 10 8171195423
Publication Year 2000
Edition Year 2024, Ed. 2nd
Pages 194p
Price ₹695.00
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Radhakrishna Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1.5
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Acharya Ramchandra Shukla

Author: Acharya Ramchandra Shukla

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

 

उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले में ‘अगौना’ नामक एक गाँव है, जहाँ 1884 ई. में आपका जन्म हुआ था। पिता चन्‍द्रबली शुक्ल मिर्ज़ापुर में क़ानूनगो थे, इसलिए वहीं के जुबली स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा पाई। 1901 में स्कूल की फ़ाइनल परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला में हुई, लेकिन गणित में कमज़ोर होने के कारण एफ़.ए. की परीक्षा पास नहीं कर सके। नौकरी पहले–पहल एक अंग्रेज़ी ऑफ़िस में की, फिर मिशन स्कूल में ड्राइंग–मास्टर हुए। हिन्दी साहित्य के प्रति अनुराग प्रारम्‍भ से था। मित्र–मंडली भी अच्छी मिली, जिसकी प्रेरणा से लेखन–क्रम चल निकला। 1910 ई. तक लेखक के रूप में अच्छी–ख़ासी ख्याति प्राप्त कर ली थी। इसी वर्ष उनकी नियुक्ति ‘हिन्दी शब्दसागर’ में काम करने के लिए ‘नागरी प्रचारिणी सभा’, काशी में हुई। यह कार्य समाप्त होते–न–होते वे काशी हिन्‍दू विश्वविद्यालय में हिन्‍दी प्राध्यापक नियुक्त हुए। वहाँ 1937 ई. में बाबू श्यामसुन्‍दर दास की मृत्यु के बाद हिन्‍दी विभागाध्यक्ष–पद को सुशोभित किया। कोश–निर्माता, इतिहासकार एवं श्रेष्ठ निबन्‍धकार के रूप में सम्मानित हुए; कविता–कहानी और अनुवाद के क्षेत्र में भी दिलचस्पी दिखाई। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं—‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘जायसी ग्रन्थमाला’, ‘तुलसीदास’, ‘सूरदास’, ‘चिन्तामणि’ (भाग : 1–3), ‘रस मीमांसा’ आदि।

2 फरवरी, 1941 को आचार्य शुक्ल का देहावसान हुआ।

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