आदिवासी दर्शन प्रकृतिवादी है। आदिवासी समाज धरती, प्रकृति और सृष्टि के ज्ञात-अज्ञात निर्देश, अनुशासन और विधान को सर्वोच्च स्थान देता है। उसके दर्शन में सत्य-असत्य, सुन्दर-असुन्दर, मनुष्य-अमनुष्य जैसी कोई अवधारणा नहीं है, न ही वह मनुष्य को उसके बुद्धि-विवेक अथवा ‘मनुष्यता’ के कारण 'महान' मानता है। उसका दृढ़ विश्वास है कि सृष्टि में जो कुछ भी सजीव और निर्जीव है, सब समान है। न कोई बड़ा है, न कोई छोटा है। न कोई दलित है, न कोई ब्राह्मण। सब अर्थवान है एवं सबका अस्तित्व एकसमान है—चाहे वह एक कीड़ा हो, पौधा हो, पत्थर हो या कि मनुष्य हो। वह ज्ञान, तर्क, अनुभव और भौतिकता को प्रकृति के अनुशासन की सीमा के भीतर ही स्वीकार करता है, उसके विरुद्ध नहीं। अन्वेषण, परीक्षण और ज्ञान को आदिवासी दर्शन सुविधा और उपयोगिता की दृष्टि से नहीं देखता, बल्कि धरती, प्रकृति और समस्त जीव-जगत के साथ सहजीवी सामंजस्य और अस्तित्वपूर्ण संगति के बतौर देखता है। मानव की सभी गतिविधियों और व्यवहारों को, समूची विकासात्मक प्रक्रिया को प्रकृति व समष्टि के विरुद्ध नहीं, बल्कि उसके पूरक के रूप में देखता है। उन सबका उपयोग वह वहीं तक करता है, जहाँ तक समष्टि के किसी भी वस्तु अथवा जीव को, प्रकृति और धरती को कोई गम्भीर क्षति नहीं पहुँचती हो। जीवन का क्षरण अथवा क्षय नहीं होता हो। आदिवासी साहित्य इसी दर्शन को लेकर चलता है।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back, Paper Back |
Publication Year | 2020 |
Edition Year | 2023, Ed. 2nd |
Pages | 152P |
Price | ₹199.00 |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 21.5 X 14 X 1 |