Santal : Paramparayen Evam Sansthan

Author: P.O. Boding
Editor: Ranendra
Edition: 2024, Ed. 1st
Language: Hindi
Publisher: Rajkamal Prakashan
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Santal : Paramparayen Evam Sansthan

‘सन्ताल : परम्पराएँ एवं संस्थान’ आदिवासी अध्ययन और मानवविज्ञान विषयक मानक पुस्तकों में शुमार है। मिशनरी-विद्वान पी.ओ. बोडिंग की इस कृति को भारतीय आदिवासी समाज और संस्कृति, विशेषकर सन्ताल सम्बन्धी अध्ययन में एक अनिवार्य पाठ माना जाता है।

भारत में नॉर्वेजियन सन्ताल मिशन के संस्थापक रेवरेंड एल.ओ. स्क्रेफ्स्रड (1840-1910) ने 1887 में सन्तालों के लिए एक मार्गदर्शिका प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था, 'होरकारेन मारे हापराम्को रेक कथा’ (Horkaren Mare Hapramko reak Katha)। सन्ताल समाज में प्रचलित तमाम मान्यताओं, परम्पराओं और संस्थानों के बारे में जानकारी देने वाली इस पुस्तक को, इस समाज के कुछ प्रतिष्ठित सदस्यों के अनुरोध पर बोडिंग ने 1916 और 1929 में पुनः सम्पादित किया। इस क्रम में बोडिंग ने कुछ नई सामग्री भी जोड़ी। लेकिन उनके जीवित रहते यह अनुवाद प्रकाशित नहीं हो सका और पांडुलिपि प्रो.ओ. सोलबर्ग के पास सुरक्षित रही। अन्ततः स्टेन नो द्वारा सम्पादित किए जाने के बाद इसका प्रकाशन हुआ।

इस पुस्तक में जन्म से लेकर मृत्यु तक सन्ताल जीवन के हरेक संस्कार, आचार, व्यवहार, विश्वास, विधान, संस्थान आदि का प्रामाणिक ब्योरा दिया गया है। इसमें सन्ताल जीवन और संस्कृति से लेखक का गहरा लगाव स्पष्ट है जिसके बिना ऐसा मूलगामी अध्ययन और दस्तावेजीकरण सम्भव नहीं हो सकता था।

सन्ताली विरासत को समग्रता में जानने-समझने के इच्छुक हरेक व्यक्ति के लिए, एक पठनीय ग्रन्थ है।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Publication Year 2024
Edition Year 2024, Ed. 1st
Pages 232p
Translator Not Selected
Editor Ranendra
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 2
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P.O. Boding

Author: P.O. Boding

पी.ओ बोडिंग

सन्ताली भाषा-संस्कृति के संरक्षण और प्रचार-प्रसार में अग्रणी भूमिका निभाने वाले पॉल ओलाफ़ बोडिंग का जन्म 2 नवम्बर, 1865 को गोजोविक, ओपलैंड (नॉर्वे) में हुआ था। उन्होंने क्रिस्टियानिया विश्वविद्यालय (अब ओस्लो विश्वविद्यालय) में धर्मशास्त्र का अध्ययन किया और 1889 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1890 में वे मिशनरी पादरी के रूप में झारखंड पहुँचे और मुख्य रूप से दुमका में रहे। भाषाविज्ञान के प्रति गहरे आकर्षण और स्थानीय समुदायों में वास्तविक रुचि के कारण उन्होंने सन्ताली भाषा-संस्कृति का समर्पित भाव से अध्ययन और दस्तावेजीकरण किया जो इसके संहिताकरण और मानकीकरण के लिए बुनियादी साबित हुआ। उन्होंने सन्ताल समुदाय के रीति-रिवाजों, अनुष्ठानों और लोककथाओं का भी गहन अध्ययन-विश्लेषण किया। उनके विद्वतापूर्ण कार्यों में सन्ताली व्याकरण सम्बन्धी विश्लेषण, शब्दकोश, लोक साहित्य संकलन और धार्मिक साहित्य का सन्ताली में अनुवाद शामिल हैं। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं—‘मैटेरियल्स फ़ॉर ए सन्ताली ग्रामर’, ‘ए चैप्टर ऑफ़ सन्ताल फ़ोकलोर’, ‘सन्ताल फ़ोकटेल्स’ (तीन खंड), ‘स्टडीज इन सन्ताल मेडिसिंस एंड कनेक्टेड फ़ोकलोर’ (तीन खंड), ‘ए सन्ताल डिक्शनरी’ (पाँच खंड), ‘सन्ताल रिडल्स एंड विचक्राफ़्ट्स अमंग द सन्ताल्स’। झारखंड में उन्होंने चार दशक से भी अधिक समय तक काम किया। 1934 में वे ओडेंस (डेनमार्क) जा बसे। वहीं 25 सितम्बर, 1938 को उनका निधन हुआ।

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