हिन्दी प्रदेश में पारसी थिएटर की निर्वाध सफलता ने हिन्दी नाटककार की सोच को अवरुद्ध और दृष्टिकोण को प्रतिक्रियामूलक बना दिया। ‘भ्रष्ट’ पारसी थिएटर की बढ़ती प्रतिष्ठा से सतर्क रहने के लिए ही प्रसाद ने इस स्थापना पर बल दिया कि नाटक रंगमंच के लिए न लिखे जाएँ बल्कि रंगमंच नाटक के अनुरूप हो। उस युग की पत्र-पत्रिकाओं में बड़े पैमाने पर यह प्रचारित किया गया कि चूंकि प्रसाद का रंगमंच से वास्ता नहीं रहा, इसलिए वे ऐसी राय रखते हैं। इधर, विश्वविद्यालयों में उन्हें पर्याप्त मान्यता मिलने लगी, दूसरे शब्दों में, उनके नाटक पाठ-स्तर के लायक हैं, उनकी दृश्य संभावनाएँ अप्रासंगिक हैं। रंगमंच के कला-संस्कारों से वंचित उस युग के मूर्धन्य आलोचक प्रसाद के नाटकों के साहित्य-पक्ष का जैसा सूक्ष्म विश्लेषण कर सके, वैसे रंगमंच के प्रश्न पर न वे इतने व्यग्र लगे और न समर्थ। दरअसल प्रसाद कलासंपन्न रंगमंच के विकास में नाटक और नाटककार की अग्रणी भूमिका स्थापित करना चाहते थे। यह तो उनके साथ बड़ा अन्याय होगा अगर यह मान लिया जाए कि नाटक के प्रदर्शन के लिए वे रंगमंच की महत्ता ही नहीं समझते थे। उन दिनों काशी हिन्दी रंगमंच का केंद्र बन गई थी। पारसी थिएटर की असलियत उनसे कैसे छिपी रह सकती है जिसे वे किशोरावस्था से लगातार देख-समझ रहे थे। डी.एल. राय का दौर आया, प्रसाद इस तरफ झुके ही नहीं, अनुप्राणित भी हुए। इसी बीच वे भारतेंदु नाटक मंडली के सदस्य बने। रत्नाकर रसिक मंडल द्वारा ‘चंद्रगुप्त’ के मंचन को उन्होंने पूरी अंतर्निष्ठा से लिया। नया आलेख तैयार किया, रिहर्सल में सक्रिय भाग लिया और इसी दबाव में कॉमिक कथा लिख डाली।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1997 |
Edition Year | 2023, Ed. 5th |
Pages | 572p |
Price | ₹1,595.00 |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14 X 2.5 |