विनोद कुमार त्रिपाठी पेशेवर अदीब नहीं हैं, अदब और शायरी उनके भीतर की वह बेचैनी है जो उनके व्यस्त और व्यावसायिक तौर पर सफल जीवन में रोज़ बूँद-बूँद इकट्ठा होती रहती है और फिर जैसे ही वे अपने नज़दीक बैठते हैं तो ग़ज़लों और नज़्मों की शक्ल में फूट पड़ती है। यही वे लम्हे होते हैं जब वे कहते हैं, ‘जलाकर आग दिल में, ख़ुद को इक तूफ़ान मैं कर दूँ।’ लेकिन तूफ़ान होने की यह कामना उनके व्यक्ति तक सीमित नहीं है, इसमें वह पूरा समाज और परिवेश शामिल है जो उनके साथ हमारे भी इर्द-गिर्द हमेशा रहता है
और जिसकी अजीबोग़रीब फ़ितरत से हम सब वाकिफ़ हैं। हम भी उसके बीच वही तकलीफ़ महसूस करते हैं जो उन्हें होती है लेकिन बहैसियत एक हस्सास शायर वे उसे कह भी लेते हैं और बहुत ख़ूबसूरती से कहते हैं।
इस किताब में शामिल उनकी ग़ज़लें और नज़्में गवाह हैं कि मौजूदा दौर की जेहनी और जिस्मानी दिक़्क़तों को उन्होंने बहुत नज़दीक और ईमानदारी से महसूस किया है। एक मिसरा है, ‘मैंने कल अपने उसूलों को नसीहत बेची’। रूह तक फैली हुई ये दुकानदारी आज हम सब का सच हो चुकी है। ऐसा कुछ अपने पास हमने नहीं रखा जिसे हम बेचने को तैयार न हों, और जिसके ख़रीदार आस-पास मौजूद न हों। लेकिन हम इससे वक़्त की ज़रूरत कहकर किनारा कर लेते हैं। विनोद त्रिपाठी इस विडम्बना को लेकर सचेत हैं। वे देख रहे हैं कि ज़िन्दगी की ये तथाकथित मजबूरियाँ हमें कहाँ लेकर जा रही हैं और ये भी कि अगर हम इन्हें रोक नहीं सकते तो इन पर निगाह तो रखना ही होगा।
‘दिखाकर ख़्वाब मुझको मारने की ज़िद है जो तेरी'—एक ग़ज़ल का ये मिसरा बताता है कि शायर ने अपने सामने मौजूद वक़्त और वक़्ती ताक़तों की साज़िशों को पहचान लिया है। और यहाँ से एक उम्मीद निकलती है कि हो सकता है कल उनका जवाब भी हम जुटा लें और अपने इंसानी सफ़र की बाक़ी उड़ानों को इंसानों की तरह अंजाम दे सकें ।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 2019 |
Edition Year | 2019, 1st Ed. |
Pages | 152P |
Translator | Not Selected |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |