Jatayu, Rugova Aur Anya Kavitayein-Hard Cover

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भारतीय कविता के शीर्षस्थ प्रतिनिधि सितांशु यशश्चन्द्र की मूल गुजराती कविताओं को हिन्दी अनुवाद में पढ़ते हुए लगता है कि हमारी कविता वास्तव में विश्व कविता को एक नया आयाम एवं स्वर दे रही है जो अतिआधुनिक भाव-संवेदन का संवहन करती हुई भी ठेठ भारतीय मिथकों और पौराणिक भूमि में मूलबद्ध है। सितांशु यशश्चन्द्र आज के मनुष्य और जीवन का संधान करते हुए सुदूर अतीत में जाते हैं और उन सर्वनिष्ठ तत्त्वों का उत्खनन करते हैं जो जटायु से लेकर इब्राहीम रुगोवा तक व्याप्त है। और ये तत्त्व हैं जिजीविषा, जीने की लालसा और संघर्ष का अपार ताब और सतत प्रतिरोध जिसके दो उज्ज्वल प्रतिनिधि हैं पौराणिक जटायु और समकालीन रुगोवा और इनके मध्य अनेकानेक स्त्री-पुरुष, नदी-पहाड़ और समस्त ब्रह्मांड—‘मगरमच्छों को मरने न देना नदी/तुम्हारे जल को जीवित रखने का अब कोई और उपाय बचा नहीं है’ तथा 'पूस की रात को बिना चुनौती दिये यूँ जीतने नहीं देना है'।

यह एक भयानक लोक है जहाँ ‘नदी के पास पानी भी नहीं जिसे कहा जा सके सचमुच पानी’ और जहाँ बड़वानल के उजियारे में दिखता है पानी, जहाँ ‘हवा को जलाने वाली बिजली गिरती है’। सितांशु जी ने हमारे समय की त्रासदी और विद्रूप को अत्यन्त तीव्र एवं अप्रत्याशित बिम्बों में पुंजीभूत किया है—‘वहाँ उस तरफ पानी में से उठाई गई बगुले की चोंच में/तड़पती मछलियाँ/कुछ ही पलों में बगुलों के पंखों की सफेदी में बदल जाएँगी’। स्थिति की भयावहता का हिला देने वाला बिम्ब है—‘हरे पेड़ को देखकर लगता है/कि यह सूख गया होता तो कुछ ईंधन मिलता/ऐसा समय है यह’। और इस समय की शिनाख्त के लिए कवि पास की मलिन बस्ती से लेकर चे गेवारा, हो ची मिन्ह और यूसुफ मेहरअली तक जाता है। वह एक ऐसा कवि है जो ‘बिना ढक्कन की कलम’ लिए पूरी पृथ्वी पर चलता जा रहा है ताकि तत्काल हर हरकत, हर जुंबिश को दर्ज किया जा सके। यहाँ पूर्वज भी हैं, परदादा, परदादी, पत्नी, बेटा, बेटी विपाशा, गाय, जीव-जन्तु और ‘सारा का सारा ब्रह्मांड एकदम सटा हुआ सा’—‘तारा-पगडंडियाँ’ और ‘ऐसी रोशनी जो अँधेरे की चमड़ी छीलकर रख देती है’। सितांशु यशश्चन्द्र ब्रह्मांड-बोध के कवि हैं जिसकी चरम अभिव्यक्ति ‘महाभोज’, ‘तारे’ और ‘लगभग सटकर’ सरीखी कविताओं में होती है जब लगता है कि ‘इस स्वर लीला में धीरे-धीरे मैं अपनी मानव भाषा भूलता जा रहा हूँ’। इस खगोलीय प्रसार के बावजूद, स्मृति के अर्णव-प्रसार के बावजूद यहाँ हर वस्तु की निजता और विलक्षणता स्थापित और समादृत है जिसका एक उदाहरण ‘हर चीज दो, दो’ है। यह बेहद नाजुक और मसृण संवेदों की कविता है। सितांशु जी सूक्ष्म और विराट दोनों को एक साथ देख सकते हैं यहाँ छोटा से छोटा कम्पन भी समस्त ब्रह्मांड की अभिव्यक्ति है और हर घटना का प्रभाव-प्रसार आकाश-गंगा तक।

यह न तो निचाट वक्तव्यों की कविता है न अवरयथार्थवादी मुद्राओं की। भारतीय काव्य की परम्परा में यह उपमाओं, रूपकों और बिम्बों के माध्यम से हर आम और खास को सम्बोधित है। क्योंकि गांधी जी का आग्रह था कि खेतों में काम करने वाले, कुएँ से पानी खींचने वाले कोशिया मजदूर भी समझ सकें ऐसी कविता लिखनी चाहिए; यह कवि के सौन्दर्यशास्त्र का एक मूल संकल्प है। इसीलिए यह गहरे राजनैतिक आशयों की भी कविता है। पूरे संग्रह में अनवरत बेचैनी और छटपटाहट है और स्वाधीनता के लिए संघर्ष। ये कविताएँ अनुभवों को केवल प्रकाशित ही नहीं करतीं, बल्कि विश्लेषित करते हुए एक तार्किक उपसंहार तक ले जाने का उद्यम करती हैं। सम्भवत: यही कारण है कि इस कविता की गति सर्पिल और कई बार तो वलयाकार है, भावों-विचारों का ऐसा गुम्फन जो पाठक को भी अपने भँवर में खींच लेता है—

मेरी कविता जैसी दूसरी कोई जगह

मेरे पास कहीं बची नहीं रह गई

जहाँ मतभेद या मनमेल को लेकर

खुलकर बात हो सके

सितांशु यशश्चन्द्र की कविता ऐसी ही सार्वजनिक जगह है—उदार, प्रशस्त और निर्बन्ध। और साथ ही नितान्त निजी और एकान्त। शायद इसीलिए ‘मुझे इसके घर में घर जैसा लगता है’।

—अरुण कमल

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 2022
Edition Year 2022, Ed. 1st
Pages 176p
Price ₹495.00
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 1.5
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Sitanshu Yashashchandra

Author: Sitanshu Yashashchandra

सितांशु यशश्चन्द्र (जन्म : 1941)

समकालीन गुजराती साहित्य के एक मूर्धन्य लेखक हैं—कवि, नाटककार, विचारक, अनुवादक। आपके रचनात्मक, आलोचनात्मक और अकादेमिक कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा देश-विदेश में होती रही हैं। आप के.के. बिड़ला फ़ाउंडेशन के ‘सरस्वती सम्मान’ से विभूषित हैं और आपको केन्द्रीय साहित्य अकादेमी का पुरस्कार (1987), ‘राष्ट्रीय कबीर सम्मान’ (म.प्र.), ‘गंगाधर महेर सम्मान’ (ओडिसा), ‘कवि कुसुमाग्रज राष्ट्रीय पुरस्कार’ (महाराष्ट्र) 2013, ‘नेशनल हारमनी अवार्ड’, ‘रंजीतराम सुवर्ण चन्द्रक’ (अहमदाबाद) 1987, ‘गुजरात गौरव पुरस्कार’ (2014) आदि प्राप्त हुए हैं। अन्तरराष्ट्रीय फलक पर आपने अनेक संस्थानों, साहित्य-उत्सवों, विश्वविद्यालयों आदि में काव्य-पाठ किए हैं और अनेक देशों के प्रमुख निर्देशकों ने आपके नाटक मंचित किए हैं। आप फुलब्राइट स्कॉलर रहे हैं और आपको ‘फ़ोर्ड वेस्ट यूरोपियन शोधवृत्ति’ भी प्राप्त हुई है। आपने ‘सौराष्ट्र विश्वविद्यालय’ के कुलपति के रूप में अपनी सेवाएँ दी हैं और ‘यूजीसी’ के एमेरिटस प्रोफ़ेसर भी रहे हैं। आप ‘एम.एस. विश्वविद्यालय, बडौदा’ में गुजराती भाषा के प्रोफ़ेसर और अध्यक्ष रहे हैं और ‘सोरबन विश्वविद्यालय’ (पेरिस), ‘यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेनसिल्विया’, ‘लॉयला मेरीमाउंट यूनिवर्सिटी’ (लॉस एंजिल्स) और ‘जादवपुर विश्वविद्यालय’ (कोलकाता) में विजि़टिंग प्रोफ़ेसर भी रहे हैं। गुजराती भाषा में आपके चार से अधिक कविता-संग्रह, छ: नाटक और आलोचना-विमर्श की तीन पुस्तकें प्रकाशित हैं और अनेक कृतियों के देश-विदेश की भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। इन दिनों वडोदरा (गुजरात) में रहते हैं।

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