जब मैं जागा तो दिन काफ़ी चढ़ आया था। आज मैं पूरी तरह चिन्तामुक्त था। मैंने नाव को झाड़ी में छिपा रखा था। उस ओर से भी निश्चिंत था। मुझे फिर नींद आने लगी। नाश्ता करने का भी जी न हुआ। मैं फिर से सोने का विचार करने लगा। तभी मुझे तोप का गोला दागे जाने की आवाज़ सुनाई पड़ी। मैं जानता था कि नदी पर तोप के गोले छोड़ने से नदी के नीचे दबी लाश ऊपर आ जाती है। शायद मुझे मरा जानकर मेरी ही लाश खोजी जा रही थी। मुझे बड़ा कौतूहल हुआ। मेरी लाश की तलाश हो रही है, यह सोचकर ही मैं प्रसन्न हो उठा।
तभी देखा कि एक नाव मेरी ओर बढ़ी आ रही है। नाव पर कई लोग थे। दौड़कर मैं झाड़ी में छिप गया। नाव धीरे-धीरे पास आ गई। मैंने देखा कि नाव पर मेरे पिताजी, थैचर साहब, उनकी पत्नी, जो हार्पर, टॉम सायर, मौसी पोली, सिड, मेरी और बहुत-से पहचाने लोग थे। वे काफ़ी पास आ गए। मुझे उनकी बातें भी सुनाई पड़ने लगीं। वे सभी मेरी हत्या हो जाने के सम्बन्ध में ही बातें कर रहे थे।
धीरे-धीरे मेरे सामने से नाव गुज़र गई। पर वे मुझे देख न पाए। नाव आगे निकल गई। द्वीप कोई तीन मील लम्बा था। नाव आँखों से ओझल हो गई पर बीच-बीच में तोप के गोले छोड़ने की आवाज़ आती रही।
मैं सोचने लगा—उनके लेखे मैं मर चुका हूँ। लाश की खोज से निराश होकर वे भी शान्त हो जाएँगे। मैंने नाव पर से अपना सामान उतारा और जंगल के बीच जाकर लकड़ी गाड़कर, रस्सी बाँधकर, कम्बल टाँगकर छोटा-सा तम्बू बनाया। फिर आग जलाकर खाना पकाया और आज़ादी की साँस ली।
इस तरह तीन दिन और तीन रातें बीत गईं। चौथे दिन मैं द्वीप की खबर लेने बाहर निकला। वहाँ कोई आदमी न था। अब मैं ही इस द्वीप का मालिक, राजा, बादशाह सब-कुछ था। वहाँ मुझे बेर, झरबेरी, करौंदे और अंगूर की लताएँ और पौधे मिले, सभी फलों से लदे। मैंने सोचा—चलो, खाने का काम चल जाएगा।
Language | Hindi |
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Binding | Hard Back |
Publication Year | 1972 |
Edition Year | 2024, Ed. 6th |
Pages | 88p |
Translator | Onkar Sharad |
Editor | Not Selected |
Publisher | Radhakrishna Prakashan |
Dimensions | 22 X 14.5 X 1 |