Dorahe Par Vam-Paper Back

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एक बड़ा प्रासंगिक सवाल उठता है कि भारत में राजनीतिक दलों के लिए वैधता के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत के रूप में वामपंथी राजनीति उस सीमा तक क्यों नहीं विकसित हो पाई जैसा कि बेहिसाब अन्याय और बढ़ती जाती असमानता वाले समाज में अपेक्षित था।

दलीय वाम अब प्राथमिक रूप से दो धाराओं में सीमित रह गया है : मुख्यधारा वाले संसदीय साम्यवादी दल और उनके सहयोगी तथा ग़ैर-संसदीय माओवादी अथवा मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूह।

इस पुस्तक के सरोकार का विषय सीमित है : यह प्राथमिक रूप से संसदीय साम्यवादी दलों पर केन्द्रित है। इस सीमा के पीछे तीन कारक हैं। पहला, मुख्यधारा वाले गुट को भारत की बुर्जुआ उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था–अपनी सीमाओं के बावजूद जिसे जनता से पर्याप्त वैधता प्राप्त है–से जुड़ने का प्रयास करने का सबसे लम्बा और सबसे समृद्ध अनुभव है और यह प्रगतिशील परिवर्तन और रूपान्‍तरण की संभावनाओं वाली राजनीति के अवसर प्रदान करता है।

दूसरे, वामपंथ की सभी धाराओं में मुख्यधारा वाला खेमा सबसे बड़ा है और विविध विभाजनों, असहमतियों और पारस्परिक प्रतिद्वान्दिताओं के बावजूद इसका लगातार सबसे लम्बा संगठित अस्तित्व रहा है।

तीसरे, और यह बात बहुत चकरानेवाली लग सकती है कि मुख्यधारा के वाम पर राज्य केन्द्रित अध्ययनों, लेखों से अलग राष्ट्रीय स्तर पर ताज़ा विश्लेषणात्मक साहित्य बहुत कम है। आशा है कि यह पुस्तक राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर वामपंथी दलों के कामकाज के विश्लेषण को उनके विचारधारात्मक आग्रहों, रणनीतिक परिप्रेक्ष्यों, राजनीतिक गोलबंदियों के दृष्टिकोणों और संगठनात्मक प्रणालियों तथा व्यवहारों के साथ जोड़कर इस शून्य को भरने में मदद करेगी।

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back, Paper Back
Publication Year 2019
Edition Year 2019, Ed. 1st
Pages 400p
Price ₹350.00
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 2
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Praful Bidwai

Author: Praful Bidwai

प्रफुल्ल बिदवई

 

प्रफुल्ल बिदवई (1949-2015) पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक लेखक और समाजकर्मी थे। उन्होंने 1972 में 'इकॉनोमिक एंड पॉलिटकल वीकली' से एक स्तम्‍भकार के रूप में पत्रकरिता शुरू की थी। उसके बाद उन्होंने अनेक पत्रिकाओं और समाचारपत्रों में काम किया। 'द गार्डियन', 'द न्यू स्टेट्समेन' और 'सोसाइटी' (लंदन), 'द नेशन' (न्यूयार्क), 'ल मोंद दिप्लोमेतिक' (पेरिस) और 'इल मैनिफेस्तो' (रोम) में भी उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए थे।

एक अनुभवी शान्ति योद्धा के रूप में उन्होंने भारत में परमाणु निःशस्त्रीकरण के लिए एक आन्दोलन 'मूवमेंट इन इंडिया फ़ॉर न्यूक्लियर डिसआर्मामेंट माइंड' शुरू किया जिसका मुख्य कार्यालय दिल्ली में था। वह ‘इंटरनेशनल नेटवर्क फ़ॉर न्यूक्लियर डिसआर्मामेंट एंड पीस’ (भारत) के नेताओं में थे।

'द पालिटिक्स ऑफ़ क्लाइमेट चेंज एंड द ग्लोबल क्राइसिस : मोर्टगेजिंग अवर फ्यूचर' (ओरियंट ब्लैकस्वान, 2011) पुस्तक के लेखक प्रफुल्ल बिदवई अनेक पुस्तकों के सहलेखक भी रहे हैं। उन्होंने एम.एन.वी. नायर के साथ 'हिस्ट्री ऑफ़ द ट्रेड यूनियन मूवमेंट इन इंडिया, 1941-47' (भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद, 2005) का सह-सम्‍पादन भी किया था।

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