Ath Shree Jeen Katha

Author: Narsingh Dayal
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Ath Shree Jeen Katha

बैंगन के पौधे में बैंगन ही क्यों, टमाटर क्यों नहीं? ख़रगोश से ख़रगोश ही क्यों पैदा होता है? कौए काले ही क्यों होते हैं, उजले क्यों नहीं? —सभ्यता के आरम्भ काल से ही ऐसे कई सवालों से मनुष्य टकराता रहा है। ‘अथ श्री जीन कथा’ पुस्तक आनुवंशिक विज्ञान के ऐसे तमाम सवालों का जवाब व्याख्या सहित देती है।

बीसवीं सदी की शुरुआत में ग्रिगोर मेंडल द्वारा प्रतिपादित आनुवंशिकी आज एक सम्पूर्ण और प्रौढ़ विज्ञान बन चुकी है। मात्र सौ सालों के अल्पकालिक इतिहास में ही इस विज्ञान ने आणविक जीव विज्ञान, जैव-प्रौद्योगिकी और जीनोमिकी जैसे नए विज्ञानों को जन्म दे दिया है।

नरसिंह दयाल के अथक श्रम की सुफल यह पुस्तक जीन विज्ञान की ऐतिहासिक कथा-यात्रा को हमारे सामने प्रस्तुत करती है। यात्रा के प्रमुख पड़ावों को इसमें समाहित किया गया है। विषय को बीस अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें जीन-कथा को लेखक ने क़िस्से और कहानी की शैली में कहने का सफल प्रयास किया है। हालाँकि ये बीस कहानियाँ नहीं, कहानियों जैसी ज़रूर हैं, जिन्हें लेखक ने अत्यन्त सरल और प्रवाहमयी भाषा में लिखा है।

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Language Hindi
Format Hard Back
Edition Year 2008
Pages 120p
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14 X 1
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Author: Narsingh Dayal

नरसिंह दयाल

देश के आनुवंशिकीविदों में सुपरिचित नाम

जन्म : 1943

शिक्षा : एम.एस-सी. (पटना, स्वर्णपदक प्राप्त), पी-एच.डी. (सेंट पीटर्सबर्ग, रूस)।

पटना और राँची विश्वविद्यालय में आनुवंशिकी में शिक्षण और शोध का चालीस वर्षों का अनुभव; पूर्व अध्यक्ष, वनस्पति विज्ञान विभाग एवं विज्ञान संकायाध्यक्ष; राँची विश्वविद्यालय, राँची।

लगभग सौ से अधिक शोध-पत्र और समीक्षाएँ राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर की अंग्रेज़ी व रूसी शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित। एक दर्जन से अधिक शोध-प्रबन्ध निर्देशित। कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं और शोध-पत्रिकाओं के संचालक और सम्पादक भी रहे।

1971-72 में कई यूरोपीय देशों का शैक्षणिक भ्रमण। 1986 से रूस के उच्च शिक्षा मंत्रालय और विज्ञान अकादमी द्वारा कई बार आमंत्रित। अमेरिका, कनाडा और कुछ यूरोपीय देशों के वैज्ञानिक सम्मेलनों में भागीदारी। साहित्य एवं सामाजिक विषयों में भी अभिरुचि।

प्रमुख कृतियाँ : ‘जीन और हम’, ‘बीसवीं सदी के महान जीव विज्ञानी’, ‘युगप्रवर्तक जीव विज्ञान’ और ‘जैव साम्राज्यवाद की दस्तक’ (प्रकाशनाधीन)।

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