‘अमृतफल’ आदिम काल से निरन्तर पीढ़ी-दर-पीढ़ी व्याप्त मानव चक्र की कभी प्रकट, कभी अप्रकट आशा और आकांक्षा का प्रतीक है। यशस्वी ओड़िया उपन्यासकार मनोज दास की यह कालजयी कृति हिन्दी पाठकों के लिए एक उपहार की तरह ही है। राजा भर्तृहरि के विषय में प्रचलित किंवदन्‍ती से शायद हिन्दी का कोई पाठक अनजान होगा लेकिन यह उपन्यास उस कथा को नए ढंग से न केवल विश्लेषित करता है, बल्कि समकालीन जीवन के पात्र अमरकान्त और उसकी बेटी मनीषा की कहानी को साथ-साथ लिए चलता है; क्योंकि वर्तमान की आँख के बिना अतीत को देखने की शक्ति आयत करना लगभग असम्‍भव है। यह उपन्यास वर्तमान की नज़र से अतीत को देखने का एक सफल प्रयास है। अतीत से लेखक ने प्रेरणा प्राप्त की है और वर्तमान को उसके साथ अन्‍तर्सम्‍बन्धित कर पाठकों को एक बेहद पठनीय कृति प्रदान की है। यह ऐतिहासिक कृति नहीं, बल्कि ऐतिहासिकता से प्रेरित एक सर्जनात्मक प्रयास है। सर्जनात्मक अनुवाद का आस्वाद कैसा विरल होता है, यह इस उपन्यास के पाठ से पता चलता है जो अपने प्रवाह में यूँ बहा ले जाता है कि आप पूरा उपन्यास पढ़े बिना चैन नहीं पाते।

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Language Hindi
Format Hard Back
Publication Year 2003
Pages 139p
Translator Shankar Lal Purohit
Editor Not Selected
Publisher Rajkamal Prakashan
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Manoj Das

Author: Manoj Das

मनोज दास

ओडिसा के समुद्र तट से लगे एक गाँव में 1934 में जन्मे मनोज दास ग्रामीण वातावरण में ही पले-बढ़े, बचपन में उन्होंने समुद्री चक्रवात में हुई भयंकर बर्बादी के दृश्य देखे और अनुभव किए जिनका उनके ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। पढ़ाई पूरी करने के बाद 1959 में उन्होंने कटक के एक कॉलेज में अंग्रेज़ी अध्यापक के रूप में काम शुरू किया और 1963 में वे श्री अरबिन्दो आश्रम, पांडिचेरी में आ गए जहाँ श्री अरबिन्दो इंटरनेशनल सेंटर फ़ॉर एजुकेशन में अंग्रेज़ी साहित्य के प्रोफ़ेसर रहे।

मनोज दास जब नौवीं कक्षा में थे तभी उनका पहला काव्य-संग्रह ‘शताब्दीर आर्त्तनाद’ प्रकाशित हुआ था। अगले वर्ष से उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘दिगंत’ निकालनी शुरू की जो आगे चलकर ओड़िया में विचारों और साहित्य की गंभीर पत्रिका बनी। लगभग उसी समय से उन्होंने कहानियाँ लिखनी भी शुरू कीं। उनका पहला कहानी-संग्रह ‘समुद्रर क्षुधा’ 1951 में प्रकाशित हुआ।

मनोज दास ने साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया है। उनकी 38 प्रकाशित कृतियाँ हैं लेकिन वे मुख्य रूप से कथा लेखक के तौर पर ही उभरे हैं। 1967 से उन्होंने अंग्रेज़ी में भी लिखना शुरू किया और अब वे अंग्रेज़ी और ओड़िया दोनों के लेखक के तौर पर स्थापित हो चुके हैं।

कई दशकों तक मुख्यतः कहानियाँ लिखने के बाद मनोज दास उपन्यास लेखन की तरफ़ मुड़े। 1992 में उनका पहला उपन्यास ‘प्रभंजन’ प्रकाशित हुआ।

वे ‘ओड़िशा साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘केन्द्रीय साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘सरस्वती सम्मान’, ‘पद्मश्री’ आदि से सम्‍मानित किए जा चुके हैं।

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