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राजकमल प्रकाशन पाठकों के ज्ञान और संवेदना को समृद्ध करनेवाली सामग्री के प्रकाशन के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहा है। ‘आलोचना’, ‘नई कहानियाँ’, ‘इतिहास’ और ‘मध्यकालीन भारत’ जैसी पत्रिकाएँ इसी का परिणाम रहीं। इनमें से ‘आलोचना’ और ’मध्यकालीन भारत’ अब भी प्रकाशित हो रही हैं। अपनी स्थापना के 75वें वर्ष की ओर बढ़ते हुए राजकमल इस सिलसिले में एक नया नाम जोड़ रहा है—‘सामाजिकी’। समाजविज्ञान और मानविकी की इस त्रैमासिक और पूर्व-समीक्षित शोध पत्रिका का प्रकाशन गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के साथ मिलकर किया जा रहा है।
इस शोध पत्रिका में देश के प्रतिष्ठित विद्वानों के अनुभवजन्य शोध, सैद्धान्तिक हस्तक्षेप, साक्षात्कार और पुस्तक समीक्षाएँ प्रकाशित की जाएँगी। प्रत्येक अंक में चार से पाँच शोध लेख, एक विशेष लेख, एक साक्षात्कार, तीन से चार पुस्तक समीक्षाएँ और स्मृति लेख होंगे। पत्रिका का पहला अंक अक्टूबर-दिसम्बर, 2021 का है।
'सामाजिकी' हिन्दी भाषा में समाजविज्ञान की नवीन बहसों, विमर्शों और ज्ञान-निर्माण की पहलों से विद्वानों, शोध-छात्रों और सामान्य पाठकों को न केवल परिचित कराएगी, बल्कि इसमें भागीदारी करने को आमंत्रित भी करेगी। यह अपना उद्देश्य हासिल करने में सफल हो इसके लिए आप सब का सहयोग आवश्यक है।
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‘सामाजिकी’ क्यों
विभिन्न समुदायों, समाजों और संस्कृतियों वाले एक देश के रूप में भारत की यात्रा बहुत रोचक एवं प्रेरणादायी रही है। सदियों से भारत के निवासी विभिन्न भाषाओं और धर्मों के साथ एक साझे भविष्य की ओर जाने का प्रयास करते रहे हैं। अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी में इस प्रयास ने ज़ोर पकड़ा। पिछली दो शताब्दियों में भारत तेज़ी से बदला है, लेकिन इस बदलाव को दर्ज करने के प्रयास उतने गहन नहीं हो सके हैं जितनी आवश्यकता थी। समाजविज्ञानियों द्वारा जो प्रयास हुए भी हैं, उनकी पद्धति, तर्कशीलता और सामग्री औपनिवेशिक संरचनाओं से प्रभावित रही है। इस परिस्थिति में भारत में एक ख़ास क़िस्म के ‘भारतीय ज्ञान’ का निर्माण हुआ, जिसकी आधार सामग्री भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों से कम-से-कम ताल्लुक़ रखती थी। यह भारतीय ज्ञान भी उनके अन्दरूनी दुःखों, भौतिक दिक़्क़तों और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को ठीक तरीक़े से सम्बोधित नहीं कर पाया है। वर्तमान में हम उस सन्दर्भ-बिन्दु पर आकर खड़े हुए हैं, जहाँ हमारे अतीत की उपलब्धियों और नाकामियों पर बात की जानी है, जहाँ हमारे वर्तमान की विभिन्न छवियों का विश्लेषण किया जाना है और भविष्य के लिए ऐसी राहें निकालनी हैं, जिन पर चलने से कोई पीछे न छूट जाए।
इस समय भारतीय समाजविज्ञान और मानविकी के क्षेत्र में एक साथ तीन पीढ़ियाँ सक्रिय हैं जिनमें दुनिया के कुछ उम्दा समाजविज्ञानी, साहित्यकार, चिन्तक और लोकज्ञानी मौजूद हैं तो विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में ऐसे शोधकर्ताओं की एक पूरी शृंखला है जो मानवीय जीवन के कष्टों, सफलताओं और गुंजाइशों पर नई राह खोलनेवाला काम सामने ला रही है। इसी के साथ आशा बँधानेवाली एक पीढ़ी है जो 1980 के बाद पैदा हुई है, जिसकी राजनीतिक और आर्थिक स्मृति में भारत देश बड़ी तेज़ी से बदला है। वह पीढ़ी अब अपनी पहली या दूसरी किताब प्रकाशित कर रही है और अपने शोधपत्रों के माध्यम से समाजविज्ञान की नई इबारत लिखना चाह रही है। यह शोध पत्रिका 'एक विचार के रूप में भारत' पर विचार-विमर्श करने के साथ उसकी क्षेत्रीय भिन्नताओं पर भी उतना ही महत्त्व देने का इरादा रखती है। वे समूह या समुदाय जो किसी भी संरचना के सीमान्त पर हैं, उनके जीवन के बारे में यह लगातार बात करेगी।
एक शोध पत्रिका के रूप में ‘सामाजिकी’ इन तीनों पीढ़ियों को एक साथ एक साझी बौद्धिक परियोजना में शामिल करना चाहती है। यह शोध पत्रिका पहले की शोध पत्रिकाओं से इस आशय में विशिष्ट है कि यह किसी एक ख़ास विचार-प्रणाली को बढ़ावा देने में न तो विश्वास करती है न ही किसी ख़ास विश्वविद्यालय, शोध संस्थान, विभाग या व्यक्तियों के समूहों के अकादमिक विचारों को बढ़ावा देने के लिए किसी ‘इन हाउस नॉलेज प्रोडक्शन’ में बदल जाना चाहती है। यह शोध पत्रिका उन सभी विचारों को सम्मान देना चाहती है जिनसे हमारे ‘राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समय’ की निर्मिति हो रही है।
—बद्री नारायण
निदेशक
गोविन्द बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान
आर्डर डिटेल
मोबाइल नंबर 9311196011 पर अवश्य भेजें।