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Meer Taqi Meer

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मीर तक़ी मीर

मीर तक़ी मीर सन् 1723 में आगरे में पैदा हुए। उनके पिता अली मुत्तक़ी एक सूफ़ी थे। मीर जब 10 साल के थे तो पिता इस दुनिया से चल बसे। इतनी कम उम्र में पिता की मौत से मीर के दिल-ओ-दिमाग़ पर गहरा असर पड़ा। कुछ पारिवारिक झगड़ों के कारण मीर को आगरा छोड़कर दिल्ली जाना पड़ा जहाँ उन्होंने अपने सौतेले मामू ख़ान-ए-आरज़ू के यहाँ शरण ली जो अपने समय के जाने-माने विद्वान तथा फ़ारसी और उर्दू के एक बड़े जानकार थे। लेकिन मीर का निर्वाह ज़्यादा दिनों तक ख़ान-ए-आरज़ू के साथ न हो सका और उन्हें उनका घर छोड़ना पड़ा। वे दिल्ली में मारे-मारे फिरते रहे। कभी-कभार किसी रईस की मेहरबानी से कुछ दिन आराम से गुज़रते लेकिन अपनी तबीयत की आज़ादी और ख़ुद्दारी के कारण लम्बे समय तक किसी के साथ नहीं रह सके। नादिरशाह और उसके बाद अहमदशाह अब्दाली के हमलों से तबाह-ओ-बर्बाद दिल्ली में गुज़र-बसर मुश्किल हो जाने की वजह से 1782 में मीर को लखनऊ जाना पड़ा, जहाँ नवाब आसिफ़ुद्दौला ने उनकी बड़ी आवभगत की। मीर की बाक़ी ज़िन्दगी लखनऊ में गुज़री। 1810 में मीर इस दुनिया से चल बसे।

मीर की ग़ज़लों के छह दीवान हैं, जिनमें दो हज़ार से अधिक ग़ज़लें हैं। शे’रों की संख्या पन्द्रह हज़ार के क़रीब है। इनके अलावा ‘कुल्लियात-ए-मीर’ में दर्ज़नों मस्नवियाँ, क़सीदे, शिकारनामें, मर्सिये आदि संकलित हैं। उन्हें ‘ख़ुदा-ए-सुख़न’ भी कहा जाता है।

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