Kawabata Yasunari
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कावाबाता यासुनारी
जापान के लिए पहली बार साहित्य के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के लिए ‘नोबल पुरस्कार’ से सम्मानित यासुनारी कावाबाता का जन्म सन् 1899 में जापान के ओसाका शहर में हुआ। 1917 में उच्च शिक्षा के लिए ओसाका छोड़ वे तोक्यो आ गए। छोटी उम्र से ही कावाबाता एक चित्रकार बनने की तमन्ना रखते थे, लेकिन धीरे-धीरे उनकी रुचि साहित्य के प्रति बढ़ती गई। शायद इसीलिए उनकी कहानियों और उपन्यासों में अक्सर उनके अन्दर का छिपा चित्रकार बार-बार उभर आता है। तोक्यो इम्पीरियल विश्वविद्यालय में अध्ययन के दौरान ही अपनी लघु कहानियों के माध्यम से जापानी साहित्य की दुनिया में वे अपना परिचय दे चुके थे। वे मनुष्य, समाज एवं प्रकृति के सद्भावपूर्ण सम्बन्ध को जापानी साहित्यिक परम्परा के आधुनिक प्रवर्तक माने जाते हैं। 1968 में जब उनको नोबल पुरस्कार से नवाज़ा गया तो उन्होंने कहा : ‘बर्फ़ी’, ‘चंद्रमा,’ मंजरी शब्द जो बदलते मौसम की अभिव्यक्ति हैं, जापानी परम्परा में पहाड़, नदियों एवं फूल-पत्तियों के सौन्दर्य के साथ-साथ मनुष्य की असंख्य संवेदनाओं के भी द्योतक हैं। उनकी अनगिनत रचनाएँ जहाँ प्रकृति के विशुद्ध सौन्दर्य का दर्शन कराती हैं, वहीं मानवीय सम्बन्धों, प्रवृत्तियों और भावनाओं से पाठकों का परिचय
भी।
1926 में उनका पहला उपन्यास ‘इजु नर्तकी’ (इजु नो ओदोरिको) प्रकाशित हुआ, जो इजू यात्रा के अनुभवों पर ही आधारित है।
उनकी प्रमुख कृतियों में ‘युकी गुनो’ (‘बर्फ़ का देश’, 1937), ‘यामा नो ओतो’ (पर्वत की आवाज़, 1954), ‘नेमुरेरू बिजो’ (‘सोती सुन्दरियाँ’, 1969) एवं ‘सेन बा जुरू’ (‘हज़ार सारस’, 1952) हैं।
(‘शोवा काल’, 1926-89) के अग्रणी साहित्यकार कावाबाता के उपन्यास, छोटी-बड़ी कहानियों और निबन्धों को जहाँ समकालीन जापान के हर वर्ग ने पढ़ा और सराहा, वहीं उनको सैकड़ों अति लघु ‘हथेली-भर’ कहानियों ने पाठकों की कल्पना को बार-बार झकझोरा।
निधन : सन् 1972