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Kabir
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कबीर
"जो कलि नाम कबीर न होते। लोक, बेद और कलिजुग मिलि करि भगति रसातल देते।" काशी के जुलाहे कबीर की महिमा बखानते ये शब्द गागरोन नरेश पीपा के हैं। कबीर की ऐसी महिमा का कारण यह है, कि उनकी कविता भीतर-बाहर के सबद निरन्तर को धारण करती है। प्रेम-विह्वलता और समाज-चिन्ता कबीर के लिए परस्पर पूरक हैं, विरोधी नहीं। जन्म के आधाऱ पर ऊँच-नीच तय करने वाली जीवनदृष्टियों के विपरीत कबीर मानवीय विवेक को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। पन्द्रहवीं सोलहवीं सदियों में शरीर से विद्यमान रहे कबीर अपनी शब्द-काया में आज तक विद्यमान हैं। वे केवल भारत नहीं, सारे विश्व के लिए प्रासंगिक हैं।