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Punarvasu-Hard Cover

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जब भी हम अनुवाद, विशेषकर कविता का अनुवाद पढ़ते हैं, हम संशय में होते हैं। यह संशय तब तो और भी ज़्यादा होता है जब वह कविता, मसलन, फ़्रेंच या स्वीडिश से अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ी से हिन्दी जैसे तिर्यक रास्ते से भटकती आती हम तक पहुँचती है। “क्या वह ठीक वही कविता रह पाती है, जैसी वह मूल में है?” —यह संशय अनुवाद से ज़्यादा, अनुवाद की ओट में वस्तुतः कविता को लेकर संशय है जो इस विश्वास से जनमता है कि कविता का एक ‘स्थिर’, ‘मूल’ रूप होता है जो उस भाषा, शैली और ढाँचे में सुरक्षित होता है जिसमें वह लिखी गई है; और यह विश्वास भी कि जब हम उसे उसके ‘मूल रूप’ में पढ़ रहे होते हैं तब हम उसे यथा—अर्थतः ग्रहण कर रहे होते हैं। प्रस्तुत चयन हमें इस अन्धविश्वास से मुक्त करता हुआ उस विस्मयकारी प्रक्रिया के क़रीब ले जाता है जिसमें कविता भाषा, शैली और संरचना का निरन्तर उत्सर्जन करती हुई उस ‘एजेंसी’ की पकड़ से बाहर जाती रहती है जिसे हम ‘कवि’ या ‘रचयिता’ या ‘मूल’ कहते हैं।

इस चयन को पढ़ते हुए हम अनुभव करते हैं कि कविता निरन्तर रूपान्तरित और परिशोधित होती ऊर्जा है (जैसाकि इस चयन में शामिल स्वीडिश कवि टोमास ट्रान्सट्रोमर भी मानते हैं) और वह तभी तक ऊर्जा है जब तक वह रूपान्तरण और परिशोधन की प्रक्रिया में है। वह या तो मूल का निषेध है या वे तमाम पाठक उसका मूल हैं जो उसे अपनी सृजनात्मकता के भीतर से परिशोधित, रूपान्तरित और मुक्त होने देते हैं। वह किसी विशिष्ट देश, विशिष्ट भाषा या विशिष्ट कवि का सृजन नहीं, पाठक का सृजन है और इसी अर्थ में वह देश, भाषा और कवि का सृजन है। इस चयन में शामिल सारे अनुवादक ऐसे ही पाठक हैं और इसीलिए इन अनुवादों को पढ़ना, अपने भीतर निहित पाठक को उद्दीप्त कर उसे कविता के ‘होने’ की सतत प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाना है; उसे उसकी ‘कर्मवाचक’ स्थिति से मुक्त कर कर्त्तृवाचक स्थिति में ले जाना है और अन्ततः उसे यह बोध कराना है कि कम से कम कविता की दुनिया में कर्तृत्त्व, स्वत्त्व का साधन नहीं है, वह स्वत्त्व का निषेध है।

कहना न होगा कि पाठक को उसकी इस गम्भीर और सृजनात्मक स्थिति का बोध करानेवाली यह एक अद्वितीय पुस्तक है। मनुष्यों के छह महाद्वीपों के बीच छुपा हुआ एक सातवाँ महाद्वीप है। जहाँ और जब भी कोई कविता लिखी (और पढ़ी) जाती है, यह महाद्वीप मूर्त और स्पन्दित होता है। इस महाद्वीप पर अस्तित्व का पुनर्वास होता है। हम इस महाद्वीप को ‘पुनर्वसु’ कहकर पुकार सकते हैं।

 

More Information
Language Hindi
Binding Hard Back
Translator Not Selected
Editor Not Selected
Publication Year 1989
Edition Year 2022, Ed. 2nd
Pages 459p
Price ₹1,295.00
Publisher Rajkamal Prakashan
Dimensions 22 X 14.5 X 3.5
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Ashok Vajpeyi

Author: Ashok Vajpeyi

अशोक वाजपेयी

जन्म : 16 जनवरी, 1941, दुर्ग (मध्य प्रदेश)।

शिक्षा : सागर विश्वविद्यालय से बी.ए. और सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली से अंग्रेज़ी में एम.ए.।

कृतियाँ : ‘शहर अब भी संभावना है’, ‘एक पतंग अनंत में’, ‘अगर इतने से’, ‘कहीं नहीं वहीं’, ‘समय के पास समय’, ‘इबारत से गिरी मात्राएँ’, ‘दुख चिट्ठीरसा है’, ‘कहीं कोई दरवाज़ा’, ‘तत्पुरुष’, ‘बहुरि अकेला’, ‘थोड़ी-सी जगह’, ‘घास में दुबका आकाश’, ‘आविन्यों’, ‘जो नहीं है’, ‘अभी कुछ और’, ‘नक्षत्रहीन समय में’, ‘कम से कम’ प्रमुख संग्रहों में हैं। कविता के अलावा आलोचना की ‘फिलहाल’, ‘कुछ पूर्वग्रह’, ‘समय से बाहर’, ‘सीढिय़ाँ शुरू हो गई हैं’, ‘कविता का गल्प’, ‘कवि कह गया है’, ‘कविता के तीन दरवाज़े’आदि कृतियाँ प्रकाशित।

सम्मान : ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘दयावती मोदी कविशेखर सम्मान’ और ‘कबीर सम्मान’ के अलावा फ़्रेंच सरकार का ‘ऑफ़‍िसर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ आर्ट्स एंड लेटर्स—2005’ और पोलिश सरकार का ‘ऑफ़‍िसर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ क्रास—2004’ सम्मान।

वे भारतीय प्रशासनिक सेवा में साढ़े तीन दशक, भारत भवन न्यास के सचिव और अध्यक्ष, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के संस्थापक-कुलपति, केन्द्रीय ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष रह चुके हैं। इन दिनों दिल्ली में रज़ा फ़ाउंडेशन के प्रबन्ध-न्यासी हैं।

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