
Vimal De
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विमल दे
जन्म सन् 1940, कोलकता में। बचपन से बन्धनमुक्त होकर घर से भागकर बहुत बार हिमालय का चक्कर लगाया। 1956 में जब तिब्बत का दरवाज़ा विदेशियों के लिए लगभग बन्द हो चुका था, एक नेपाली तीर्थयात्री दल में शरीक होकर तमाम अड़चनों से जूझते हुए विमल दे ल्हासा से कैलास तक की यात्रा कर आए।
वे 1967 में साइकिल पर विश्व-भ्रमण के लिए निकले। एक पुरानी साइकिल, जेब में कुल अठारह रुपए, मन में अदम्य उत्साह और साहस, यही उनकी पूँजी थी। रास्ते में छिटपुट काम कर रोटी का जुगाड़ किया, फिर आगे बढ़ते रहे। इस तरह पाँच साल तक दुनिया की सैर करने के बाद वे 1972 में भारत लौटे। इन यात्राओं का विवरण ‘दूर का प्यासा’ नामक ग्रन्थ में उन्होंने 7 खंडों में लिखा। वे सन् 1972 से 1980 तक मुख्यतः पर्वतारोही पर्यटक के रूप में विश्व के पर्वतीय स्थलों की यात्रा करते रहे। 1981 से 1998 के बीच उन्होंने तीन बार उत्तरी ध्रुव और दो बार दक्षिणी ध्रुव की यात्रा की।
उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं—‘महातीर्थ के अन्तिम यात्री’, ‘महातीर्थ के कैलास बाबा’ और ‘सूर्य प्रणाम’।
फ़्रांस की संस्थाओं तथा वाशिंगटन के नेशनल गेओग्राफ़िक सोसाइटी ने विमल दे को कई बार सम्मानित किया है। वे अमेरिकी पोलर सोसाइटी का आजीवन सदस्य रहे हैं तथा ब्रितानवी पोलर सोसाइटी का परामर्शदाता भी। अपने ढंग का अनूठा पर्यटक और दार्शनिक होने के साथ ही वे एक मानव प्रेमी हैं और निरन्तर जनहितकारी कार्यों में जुटे रहते हैं।